संस्कृति
संस्कृति एवं लोकप्रथाएं
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घोटुल:
यह प्रथा गोंड़ जनजाति के युवक-युवतियों का सामाजिक सांगठनिक स्वरूप है, जहां युवा भावी जीवन की शिक्षा प्राप्त करत है। इन युवाओं को स्थानीय बोली में चेलिक-मोटयारी कहते है। इस प्रथा को गोंड़ जनजाति में व्यापक शिक्षण स्वरूप में देखा जाता है। इसमें नृत्य, गान जैसे विभिन्न क्रियाकलाप के माध्याम से बहुमुखी विकास दी जाती है। घोटुल की प्रषासनिक व्यवस्था काफी कठोर रही है। इसके उल्लंघन पर दंड का प्रावधान रहा है जिससे ग्रामीणों को भी कोर्इ आपतित नहीं होती थी। इस संगठन द्वारा सामाजिक संरचना जैसे जन्म से लेकर मृत्यु तक में व्यवस्था में नि:शुल्क सहयोग दिया जाता है इसके एवज में गांव वाले इन्हे भोजन आदि करा कर सम्मान करते है। अब यह प्रथा धीरे- धीरे विलुप्तप्राय हो रही हैं।
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गोन्चा पर्व (भगवान जगन्नाथ की पूजा):
आशाढ़ के महिने में बस्तर के महाराजा पुरूशोत्तम देव अपने कुछ लोगों के साथ पैदल ही जगन्नाथ पुरी के लिये चल पडे़। पक्ष द्वितीया के दिन भगवान जगन्नाथ का रथ खीचा ही जा रहा थ तभी रथ रूक गया व सभी अचरज से भर गये। पुरी-मुखिया गजपति राजा ने कहा कि जरूर अभी जगन्नाथ का कोर्इ भक्त यहां नहीं पहुंचा है। तभी बस्तर के महाराजा पुरूषोत्तम देव वहां पहुंचे और रथ चल पड़ा। इससे लोगों ने भगवान और भक्त राजा पुरूषोत्तम देव की जय-जयकार की ।तब से बस्तर महाराज ने जगदलपुर मं गोन्चा पर्र्व और दषहरे के समय रथ चलाने की प्रथा षुरू की। इन्ही तिथियों मे जगदलपुर, नारायणपुर के साथ-साथ कोण्डागांव और पलारी में भी यह पर्व मनाया जाता है। भगवान जगन्नाथ मंदिर में जगन्नाथ, बलराम, सुभद्रा की पूजा की जाती है। इस दिन विषेश कर बांस की तुपकियों में ‘पेंग फल (मालकांगिनी) भरकर एक-दूसरे पर ‘पेंगो की की बरसात उत्साह पूर्वक करते है। यह प्रथा आज भी प्रचलित है। पहले श्री गोन्चा तथा सात दिन बाद बाहड़ा गोन्चा होता है। पलारी में रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलराम, सुभद्रा के स्थानीय देवी-देवता रथ पर बैठते हैं।
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कोण्डगांव मड़र्इ:
फागुन पूर्णिमा के पहले मंगलवार केा माता पहुंचानी (जातरा) का आयोजन होता है, जिसमें गांव के प्रमुख पटेल,कोटवार एकत्रित होकर देवी-देवताओं का आहवान कर उन्हें मेला हेतु आमंत्रित करते है तथा देवताओं से मांग की जाती है कि आने वाले साल भर खेती कार्य, जनवार इत्यादि में किसी प्रकार का प्रकोप बीमारी जैस विघ्न ना आये। इसके अगले मंगलवार को देवी-देवताओें का आगमन होता है तथा ग्राम देवी के गुड़ी मंदिर में एकत्रित होकर मेला परिसर की परिक्रमा कर मेले के षुभारंभ की घोशणा की जाती है। इस मेले में परंपरा रही है कि बस्तर राजा पुरूषोत्तम देव के प्रतिनिधि तौर पर तहसील प्रमुख होने के नाते तहसीलदार को बकायदा सम्मान के साथ परघा कर मेले में ले जाते है। तहसीलदार को हजारी फूल का हार पहनाते है। षीतला माता, मौली मंदिर में पूजा तथा मेले की परिक्रमा होती है। यह प्रथा आज भी प्रचलित है|